Thursday, April 11, 2019

महात्मा फुले


हिन्दू समाज में फैली हुई कुरीतियां, रूढ़िवादिता के खिलाफ 19वीं सदी के प्रारंभ में बहुत से समाज सुधारक आवाज उठाने लगे थे। जिनमें राजा राम मोहन राय,महादेव गोविन्द रानाडे, ज्योतिबा फुले आदि का महत्व पूर्ण योगदान हैं। उस समय सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह,स्त्री शिक्षा आदि विभिन्न सामाजिक कुरुतियो को दूर करने में इन सभी का महत्वपूर्ण योगदान हैं। जिसके लिए हम सभी हमेशा इन समाज सुधारकों के ऋणी रहेगें । आज की पोस्ट में हमे इन्ही में से एक महान समाज सुधारक के बारे में जानेंगे।
      
                                 महात्मा फुले

नाम – ज्योतिबा फुले , ज्योतिराव फुले , महात्मा फुले

जन्म- 11 अप्रेल 1827

जन्म स्थान – खानवाडी पुणे ( महाराष्ट्र)

पिता – गोविन्द राव

माता -चिमना बाई

पत्नी– सावित्री बाई फुले

मृत्यू– 28 नवम्बर 1890 पुणे


                     प्रारंभिक जीवन

ज्योतिराव  फुले का जन्म 11 अप्रेल 1827 को महाराष्ट्र के खानवाडी में एक माली परिवार में हुआ था।इनके पिता का नाम गोविन्द राव तथा माता का नाम चिमना बाई था। जब ये बहुत छोटे थे तभी इनकी माँ का देहांत हो गया था। इनका लालन-पालन इनके पिता की मौसेरी बहन सगुना बाई ने किया था। इनके परिवार का पैत्रिक कार्य बागवानी करना और फूल मालाएँ बनाकर बेचना था। उनके इसी कार्य से इनका उपनाम फुले हो गया। 
                           शिक्षा

उस समय माली समाज बहुत पिछड़ा हुआ था। उस समय शिक्षा का महत्व भी बहुत कम था।  फिर भी इनके पिता गोविन्द राव शिक्षा के महत्व को समझते थे। इसलिए 7 वर्ष की आयु में इन्हें प्रारंभिक शिक्षा के लिए स्कूल भेजा गया। हिन्दू समाज में जातिगत भेदभाव भी बहुत ज्यादा था। इसी भेद भाव का सामना ज्योतिबा को स्कूल में भी करना पड़ा। जिसके कारण स्थिति ऐसी हो गई कि इन्हें अपना स्कूल छोड़कर घर बैठना पड़ा। तब सगुना बाई ने ज्योतिबा को घर ही पढ़ाना शुरू कर दिया। अब ज्योतिबा दिन में खेतों पर काम करते और रात्रि में पढाई करने लगे। 
इनकी इस लगन को देखकर इनके पडौसी उर्दू-फारसी के शिक्षक गफ्फार बेग और इसाई पादरी लेजिट ने 1941 में इनका प्रवेश पुनः एक अग्रेजी स्कूल में करा दिया। जहाँ सर्वाधिक अंक पाकर सभी को अचम्भित कर दिया। 

सामाजिक भेद भाव का ज्योतिबा पर प्रभाव 

ज्योतिबा फुले ने बहुत ही कम आयु में सामाजिक भेदभाव का सामना किया। इसलिए उनका मन उद्देलित रहने लगा था।  वे हिन्दू धर्म में फैली हुई विसंगतियां, ऊँच -नीच,जाति -पात,अंध-विश्वास को मानव विकास में बाधक मानते थे। उनका मानना था कि धर्म को तो मानव के आत्मिक विकास का साधन होना चाहिए। पर उस समय के तथा कथित उच्च वर्ग ने दलित वर्ग और धर्म के बीच एक कृत्रिम दीवार खडी कर दी थी। वो इस रुढ़िवादी दीवार को तोड़ना चाहते थे। 
ज्योतिबा ने इस सामाजिक भेद भाव को दूर करने के लिए और समझने के लिए रामानंद, रामानुज,कबीर,दादू,संत तुकाराम,गौतम बुद्ध, के साहित्य को पढ़ा। उन्होंने विल्सन जोन्स द्वारा हिन्दू धर्म की अंग्रेजी कृतियाँ गीता ,उपनिषद, पुराण आदि को भी पढ़ा। इन सभी पुस्तकों को पढ़कर उन्होंने अपने चिंतन को एक नया नई ऊंचाई पर पहुँचाया। वे समझ गए कि केवल शिक्षा ही समाज में फैली हुई इन विसंगतियों को दूर कर सकती हैं। इसलिए उन्होंने शिक्षा का प्रचार प्रसार कर समाज में आमूल-चूल परिवर्तन करने की ठान ली। जिसके फलस्वरूप वे महान समाज सुधारक बने। 
                     
                          नारी शिक्षा

ज्योतिबा फुले का यह मानना था कि यदि स्त्री शिक्षित होगी तो समाज शिक्षित होगा। क्योकिं बच्चे के लिए उसकी माँ ही प्राथमिक पाठ शाला होती है।  वही बच्चों में संस्कारों के बीज डालती है जो उसके जीवन भर काम आते हैं। वो ही समाज को एक नई दिशा दिखा सकती हैं। इसीलिए उन्होंने स्त्री शिक्षा पर बहुत जोर दिया। 
वंचित वर्ग और स्त्री शिक्षा के लिए उन्होंने इस वर्ग की लडकियों और लड़कों को अपने घर पर पढ़ाना शुरू कर दिया। उच्च वर्ग के लोगों को उनका यह प्रयास अच्छा नहीं लगा।  इसलिए वे बच्चों को छिपाकर लाते और उन्हें वापस छोड़ कर लाते। धीरे-धीरे उनका यह प्रयास सफल होने लगा।  बच्चों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गई। अब उन्होंने खुले आम पढ़ाना शुरू कर दिया और इसे एक स्कूल का रूप दे दिया। 
ज्योतिबा ने 1951 में भारतीय इतिहास का प्रथम बालिका स्कूल में खोला। अब इस स्कूल में पढ़ाने के लिए शिक्षक की आवश्यकता पड़ने लगी। लेकिन जो भी शिक्षक उस स्कूल में पढ़ाने के लिए आता। वो कुलीन लोगों के विरोध और सामाजिक दबाव के कारण कुछ ही दिन में स्कूल छोड़ देता। इस विकट समस्या से छुटकारा पाने के लिए ज्योतिबा ने अपनी पत्नि सावत्री बाई फुले को पढ़ाया। इसके बाद ज्योतिबा फुले ने सावित्री बाई फुले एक मिशनरीज स्कूल में पढ़ाने का प्रशिक्षण दिलाया। इस प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद सावित्री बाई फुले भारत की प्रथम प्रशिक्षित महिला शिक्षिका बनी। 
ज्योतिबा फुले के इस प्रयास से सारा कुलीन वर्ग उनके खिलाफ खड़ा हो गया। वो ज्योतिबा फुले और सावत्री बाई फुले को तरह-तरह से अपमानित करने लगे। यह विरोध इतना बढ़ गया कि उन्हें अपने पिता का घर भी छोड़ना पड़ा। लेकिन इतना सब कुछ होने के बाद भी उन्होंने अपने मनोबल को कभी कम नहीं होने दिया। शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक तीन बालिका स्कूल खोल दिए। 
अन्य सामाजिक सुधार हेतु संघर्ष 
19 वी सदीं में अछूतों की स्थति बहुत ही दयनीय थी। जब भी कोई अछूत पूना शहर की सड़को पर से निकलता तो उसे अपनी पीठ पर पत्तियों की एक झाड़ू बांधनी पड़ती थी। जिससे की जब वह चलता तो उसके पीछे की सड़क साफ हो जाती हैं। इसी के साथ अपनी गर्दन में एक बर्तन बांधना पड़ता था। जिससे कि जब वह थूके तो उसी बर्तन में थूके।इसके अलावा जब भी कोई अछूत सड़क पर निकलता था, तो उसे आवाज लगाकर लोगों को सावधान करना पड़ता था। 
अछूत गरीब लोगों के पास पीने के पानी के लिए कोई कुआ भी नहीं होता था, और उच्च जाती के लोग उन्हें अपने कुँए से पानी भी नहीं भरने देते थे। जिसके कारण वे गन्दा पानी पीने के लिए मजबूर हो जाते हो विभिन्न बीमारियों से ग्रसित हो जाते थे। ज्योतिबा फुले इस प्रकार की दयनीय स्थिति से बहुत दुखी रहते थे। इसलिए उन्होंने अपने घर में पानी का एक कुआं खुदवाया और सभी वर्गों के लिए खोल दिया। और जब वे नगर पालिका के सदस्य बने तो उन्होंने पीने के पानी की हौज सार्वजानिक स्थलों पर बनवाई। 
ज्योतिबा फुले ने सती प्रथा का विरोध किया और विधवाओं के विवाह कराने का अभियान चलाया। जिसके क्रम में उन्होंने अपने मित्र विष्णु शास्त्री पंडित का विवाह एक विधवा ब्राह्मणी से कराया। उन्होंने पथ भ्रष्ट हुई महिलाओं द्वारा बाल हत्या को रोकने के लिए 1863 में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह खोला। उन्होंने एक विधवा ब्राह्मणी काशीबाई की प्रसूति अपने घर कराइ और उसके बच्चे को गोद ले लिया जिसका नाम उन्होंने यशवंत रक्खा। 1871 में उन्होंने सावित्री बाई फुले को सयोजक बनाकर पूना में विधवा आश्रम खोला। 
जिस प्रकार यूरोप में कार्ल मार्क्स किसान-मजदूर आन्दोलन के प्रणेता थे। उसी प्रकार भारत में ज्योतिबा फुले किसान मजदूर आन्दोलन के जन्मदाता थे। उस समय समय मिल व उच्च वर्ग की दुकानों में कार्य करने वाले मजदूरों की स्थिति  बहुत ही दयनीय थी। उनके काम के घंटे बहुत अधिक थे। फुले ने इस स्थिति  के विरोध में आवाज उठाई और मजदूरों के काम के घंटो में कमी  व अवकाश,बीच में एक घंटे का आराम,सफाई व्यवस्था आदि के कार्य मजदूरों के हितो में कराने में सफलता प्राप्त की। 
                              अंतिम समय

उनके द्वारा किये गए सामाजिक कार्यो के लिए उस समय के एक अन्य महान समाज सुधारक राव बहादुर विट्ठल राव कृष्णाजी वान्देकर ने 1988 उन्हें महात्मा के उपाधि से संबोधित किया। इसी वर्ष उन्हें लकवा मार गया जिसकी वजह से उनका शरीर कमजोर होता गया।अंततः 27 नवम्बर 1890 को एक महान व्यक्तित्व इस दुनिया से हमेशा हमेशा के लिए विदा हो गया।
स्मरणीय तथ्य


  • ज्योतिबा फुले ने भारत के इतिहास का प्रथम बालिका स्कूल की स्थापना की। 
  • 1863 में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह खोला। 
  • ज्योतिबा फुले ने 24 सितम्बर 1872 को सत्य शोधक समाज की स्थापना की। 
  • सावित्री बाई फुले प्रथम प्रशिक्षित शिक्षिका बनी। 
  • ज्योतिबा फुले को महात्मा की उपाधि राव बहादुर विट्ठल राव कृष्णाजी वान्देकर ने 1988 में दी थी। 
  • ज्योतिबा फुले द्वारा लिखित कुछ प्रसिद्ध पुस्तकें -तृतीय रत्न,छत्रपति शिवाजी,ब्राहमण का चातुर्य,गुलामगिरी ,किशान का कोड़ा,अछूतों की कैफियत,गुलामगिरी,सार्वजानिक सत्यधर्म आदि है|


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