Tuesday, April 23, 2019

सफलता का रहस्य


एक बार एक नौजवान लड़के ने सुकरात से पूछा कि सफलता का रहस्य क्या  है?

सुकरात ने उस लड़के से कहा कि तुम कल मुझे नदी के किनारे मिलो. वो मिले. फिर सुकरात ने नौजवान से उनके साथ नदी की तरफ बढ़ने को कहा.और जब आगे बढ़ते-बढ़ते पानी गले तक पहुँच गया, तभी अचानक सुकरात ने उस लड़के का सर पकड़ के पानी में डुबो दिया.
लड़का बाहर निकलने के लिए संघर्ष करने लगा , लेकिन सुकरात ताकतवर थे और उसे तब तक डुबोये रखे जब तक की वो नीला नहीं पड़ने लगा. फिर सुकरात ने उसका सर पानी से बाहर निकाल दिया और बाहर निकलते ही जो चीज उस लड़के ने सबसे पहले की वो थी हाँफते-हाँफते तेजी से सांस लेना.
सुकरात ने पूछा ,” जब तुम वहाँ थे तो तुम सबसे ज्यादा क्या चाहते थे?”
लड़के ने उत्तर दिया,”सांस लेना”
सुकरात ने कहा,” यही सफलता का रहस्य है. जब तुम सफलता को उतनी ही बुरी तरह से चाहोगे जितना की तुम सांस लेना  चाहते थे  तो वो तुम्हे मिल जाएगी” इसके आलावा और कोई रहस्य नहीं है.

दोस्तों, जब आप सिर्फ और सिर्फ एक चीज चाहते  हैं तो पूर्ण रूप से संकेंद्रित होकर अपने लक्ष्य की ओर हौसला के साथ बढ़ते रहे सफलता अवश्य ही मिलेगी।

Friday, April 19, 2019

गुस्सा पे काबू.......


बहुत समय पहले की बात है, एक गाँव में एक लड़की रहती थी। वह बहुत ही गुस्सैल थी, छोटी-छोटी बात पर अपना आप खो बैठती और लोगों को भला-बुरा कह देती। उसकी इस आदत से परेशान होकर एक दिन उसके पिता ने उसे कीलों से भरा हुआ एक थैला दिया और कहा कि , ” अब जब भी तुम्हे गुस्सा आये तो तुम इस थैले में से एक कील निकालना और दिवार में ठोक देना.”
        
 पहले दिन उस लड़की को बीस बार गुस्सा आया और इतनी ही कीलें दिवार में ठोंक दी। पर  धीरे-धीरे कीलों  की संख्या घटने लगी, उसे लगने लगा की कीलें ठोंकने में इतनी मेहनत करने से अच्छा है कि अपने क्रोध पर काबू किया जाए और अगले कुछ हफ्तों में उसने अपने गुस्से पर बहुत हद्द तक  काबू करना सीख ली, और फिर एक दिन ऐसा आया कि उस लड़की ने पूरे दिन में एक बार भी किसी पे गुस्सा नही की।
जब उसने अपने पिता को ये बात बताई तो उन्होंने ने फिर उसे एक काम दे दिया, उन्होंने कहा कि ,” अब हर उस दिन जिस दिन तुम एक बार भी गुस्सा ना करो इस दीवार से एक कील निकाल निकाल देना.”

     लड़की ने ऐसा ही किया, और बहुत समय बाद वो दिन भी आ गया जब लड़की ने दिवार में लगी आखिरी कील भी निकाल दी, और अपने पिता को ख़ुशी से ये बात बतायी.
तब पिताजी उसका हाथ पकड़कर उस दीवार के पास ले गए, और बोले, ” बेटी तुमने बहुत अच्छा काम किया है, लेकिन क्या तुम दीवार में हुए छेदों को देख पा रही हो. अब वो दीवार कभी भी वैसा नहीं बन सकती जैसी वो पहले थी। जब तुम क्रोध में कुछ कहती हो तो वो शब्द भी इसी तरह सामने वाले व्यक्ति पर गहरे घाव छोड़ जाते हैं.”

      इसी प्रकार जब भी हम किसी व्यक्ति से कुछ ऐसी बातें कह  देते हैं जो कि हृदय व मन पर गहरा आघात कर देती है, तो हम चाह कर भी उसके मन के आघात को ठीक नहीं कर सकते, और उसके आघात के दुःख को बहुत समय के उपरांत भी नहीं भर सकते। अतः हमें ऐसी बातों का ध्यान रखना चाहिए कि हमारी गुस्से मे कही गयी बातों से किसी के मन व हृदय पर आघात ना हो।

Sunday, April 14, 2019

डा. बाबा साहब अंबेडकर की जीवनी

Dr. B. R. Ambedkar


डा. बाबा साहब अंबेडकर की जीवनी
         डा. बाबा साहब अंबेडकर का मूल नाम भीमराव था। उनके पिताश्री रामजी वल्द मालोजी सकपाल महू में ही मेजर सूबेदार के पद पर एक सैनिक अधिकारी थे। अपनी सेवा के अंतिम वर्ष उन्‍होंने और उनकी धर्मपत्नी भीमाबाई ने काली पलटन स्थित जन्मस्थली स्मारक की जगह पर विद्यमान एक बैरेक में गुजारे। सन् 1891 में 14 अप्रैल के दिन जब रामजी सूबेदार अपनी ड्यूटी पर थे, 12 बजे यहीं भीमराव का जन्म हुआ। कबीर पंथी पिता और धर्मर्मपरायण माता की गोद में बालक का आरंभिक काल अनुशासित रहा।


शिक्षा
बालक भीमराव का प्राथमिक शिक्षण दापोली और सतारा में हुआ। बंबई के एलफिन्स्टोन स्कूल से वह 1907 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। इस अवसर पर एक अभिनंदन समारोह आयोजित किया गया और उसमें भेंट स्वरुप उनके शिक्षक श्री कृष्णाजी अर्जुन केलुस्कर ने स्वलिखित पुस्तक 'बुद्ध चरित्र' उन्हें प्रदान की। बड़ौदा नरेश सयाजी राव गायकवाड की फेलोशिप पाकर भीमराव ने 1912 में मुबई विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की। संस्कृत पढने पर मनाही होने से वह फारसी लेकर उत्तीर्ण हुये।

अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय
बी.ए. के बाद एम.ए. के अध्ययन हेतु बड़ौदा नरेश सयाजी गायकवाड़ की पुनः फेलोशिप पाकर वह अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में दाखिल हुये। सन 1915 में उन्होंने स्नातकोत्तर उपाधि की परीक्षा पास की। इस हेतु उन्होंने अपना शोध 'प्राचीन भारत का वाणिज्य' लिखा था। उसके बाद 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय अमेरिका से ही उन्होंने पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की, उनके पीएच.डी. शोध का विषय था 'ब्रिटिश भारत में प्रातीय वित्त का विकेन्द्रीकरण'।
लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स एण्ड पोलिटिकल सांइस
फेलोशिप समाप्त होने पर उन्हें भारत लौटना था अतः वे ब्रिटेन होते हुये लौट रहे थे। उन्होंने वहां लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स एण्ड पोलिटिकल सांइस में एम.एससी. और डी. एस सी. और विधि संस्थान में बार-एट-लॉ की उपाधि हेतु स्वयं को पंजीकृत किया और भारत लौटे। सब से पहले छात्रवृत्ति की शर्त के अनुसार बडौदा नरेश के दरबार में सैनिक अधिकारी तथा वित्तीय सलाहकार का दायित्व स्वीकार किया। पूरे शहर में उनको किराये पर रखने को कोई तैयार नही होने की गंभीर समस्या से वह कुछ समय के बाद ही मुंबई वापस आये।

दलित प्रतिनिधित्व
वहां परेल में डबक चाल और श्रमिक कॉलोनी में रहकर अपनी अधूरी पढाई को पूरी करने हेतु पार्ट टाईम अध्यापकी और वकालत कर अपनी धर्मपत्नी रमाबाई के साथ जीवन निर्वाह किया। सन 1919 में डॉ. अम्बेडकर ने राजनीतिक सुधार हेतु गठित साउथबरो आयोग के समक्ष राजनीति में दलित प्रतिनिधित्व के पक्ष में साक्ष्य दी।
अशिक्षित और निर्धन लोगों को जागरुक बनाने के लिया काम
उन्‍होंने मूक और अशिक्षित और निर्धन लोगों को जागरुक बनाने के लिये मूकनायक और बहिष्कृत भारत साप्ताहिक पत्रिकायें संपादित कीं और अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने के लिये वह लंदन और जर्मनी जाकर वहां से एम. एस सी., डी. एस सी., और बैरिस्टर की उपाधियाँ प्राप्त की। उनके एम. एस सी. का शोध विषय साम्राज्यीय वित्त के प्राप्तीय विकेन्द्रीकरण का विश्लेषणात्मक अध्ययन और उनके डी.एससी उपाधि का विषय रूपये की समस्या उसका उद्भव और उपाय और भारतीय चलन और बैकिंग का इतिहास था।

डी. लिट्. की मानद उपाधियों से सम्मानित
बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर को कोलंबिया विश्वविद्यालय ने एल.एलडी और उस्मानिया विश्वविद्यालय ने डी. लिट्. की मानद उपाधियों से सम्मानित किया था। इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर वैश्विक युवाओं के लिये प्रेरणा बन गये क्योंकि उनके नाम के साथ बीए, एमए, एमएससी, पीएचडी, बैरिस्टर, डीएससी, डी.लिट्. आदि कुल 26 उपाधियां जुडी है।

योगदान:
भारत रत्न डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने अपने जीवन के 65 वर्षों में देश को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, औद्योगिक, संवैधानिक इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों में अनगिनत कार्य करके राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया, उनमें से मुख्य निम्‍नलिखित हैं :-

सामाजिक एवं धार्मिक योगदान:
मानवाधिकार जैसे दलितों एवं दलित आदिवासियों के मंदिर प्रवेश, पानी पीने, छुआछूत, जातिपाति, ऊॅच-नीच जैसी सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के लिए मनुस्मृति दहन (1927), महाड सत्याग्रह (वर्ष 1928), नासिक सत्याग्रह (वर्ष 1930), येवला की गर्जना (वर्ष 1935) जैसे आंदोलन चलाये।
बेजुबान, शोषित और अशिक्षित लोगों को जगाने के लिए वर्ष 1927 से 1956 के दौरान मूक नायक, बहिष्कृत भारत, समता, जनता और प्रबुद्ध भारत नामक पांच साप्ताहिक एवं पाक्षिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया।
कमजोर वर्गों के छात्रों को छात्रावासों, रात्रि स्कूलों, ग्रंथालयों तथा शैक्षणिक गतिविधियों के माध्यम से अपने दलित वर्ग शिक्षा समाज (स्था. 1924) के जरिये अध्ययन करने और साथ ही आय अर्जित करने के लिए उनको सक्षम बनाया। सन् 1945 में उन्होंने अपनी पीपुल्‍स एजुकेशन सोसायटी के जरिए मुम्बई में सिद्वार्थ महाविद्यालय तथा औरंगाबाद में मिलिन्द महाविद्यालय की स्थापना की। बौद्धिक, वैज्ञानिक, प्रतिष्ठा, भारतीय संस्कृति वाले बौद्ध धर्म की 14 अक्टूबर 1956 को 5 लाख लोगों के साथ नागपुर में दीक्षा ली तथा भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्स्‍थापित कर अपने अंतिम ग्रंथ ''द बुद्धा एण्ड हिज धम्मा'' के द्वारा निरंतर वृद्धि का मार्ग प्रशस्त किया।
जात पांत तोडक मंडल (वर्ष 1937) लाहौर, के अधिवेशन के लिये तैयार अपने अभिभाषण को जातिभेद निर्मूलन नामक उनके ग्रंथ ने भारतीय समाज को धर्मग्रंथों में व्याप्त मिथ्या, अंधविश्वास एवं अंधश्रद्धा से मुक्ति दिलाने का कार्य किया। हिन्दू विधेयक संहिता के जरिए महिलाओं को तलाक, संपत्ति में उत्तराधिकार आदि का प्रावधान कर उसके कार्यान्वयन के लिए वह जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे।

आर्थिक, वित्तीय और प्रशासनिक योगदान
भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखित शोध ग्रंथ रूपये की समस्या-उसका उदभव तथा उपाय और भारतीय चलन व बैकिंग का इतिहास, ग्रन्थों और हिल्टन यंग कमीशन के समक्ष उनकी साक्ष्य के आधार पर 1935 से हुई।

उनके दूसरे शोध ग्रंथ 'ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास' के आधार पर देश में वित्त आयोग की स्थापना हुई।

कृषि में सहकारी खेती के द्वारा पैदावार बढाना, सतत विद्युत और जल आपूर्ति करने का उपाय बताया।

औद्योगिक विकास, जलसंचय, सिंचाई, श्रमिक और कृषक की उत्पादकता और आय बढाना, सामूहिक तथा सहकारिता से प्रगत खेती करना, जमीन के राज्य स्वामित्व तथा राष्ट्रीयकरण से सर्वप्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी गणराज्य की स्थापना करना।

सन 1945 में उन्होंने महानदी का प्रबंधन की बहुउददे्शीय उपयुक्तता को परख कर देश के लिये जलनीति तथा औद्योगिकरण की बहुउद्देशीय आर्थिक नीतियां जैसे नदी एवं नालों को जोड़ना, हीराकुण्ड बांध, दामोदर घाटी बांध, सोन नदी घाटी परियोजना, राष्ट्रीय जलमार्ग, केन्द्रीय जल एवं विद्युत प्राधिकरण बनाने के मार्ग प्रशस्त किये।

सन 1944 में प्रस्तावित केन्द्रिय जल मार्ग तथा सिंचाई आयोग के प्रस्ताव को 4 अप्रैल 1945 को वाइसराय द्वारा अनुमोदित किया गया तथा बड़े बांधोंवाली तकनीकों को भारत में लागू करने हेतु प्रस्तावित किया।

उन्होंने भारत के विकास हेतु मजबूत तकनीकी संगठन का नेटवर्क ढांचा प्रस्तुत किया।

उन्होंने जल प्रबंधन तथा विकास और नैसर्गिक संसाधनों को देश की सेवा में सार्थक रुप से प्रयुक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया।

संविधान तथा राष्ट्र निर्माण
उन्‍होंने समता, समानता, बन्धुता एवं मानवता आधारित भारतीय संविधान को 02 वर्ष 11 महीने और 17 दिन के कठिन परिश्रम से तैयार कर 26 नवंबर 1949 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सौंप कर देश के समस्त नागरिकों को राष्ट्रीय एकता, अखंडता और व्यक्ति की गरिमा की जीवन पध्दति से भारतीय संस्कृति को अभिभूत किया।
वर्ष 1951 में महिला सशक्तिकरण का हिन्दू संहिता विधेयक पारित करवाने में प्रयास किया और पारित न होने पर स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दिया। वर्ष 1955 में अपना ग्रंथ भाषाई राज्यों पर विचार प्रकाशित कर आन्ध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र को छोटे-छोटे और प्रबंधन योग्य राज्यों में पुनर्गठित करने का प्रस्ताव दिया था, जो उसके 45 वर्षों बाद कुछ प्रदशों में साकार हुआ।
निर्वाचन आयोग, योजना आयोग, वित्त आयोग, महिला पुरुष के लिये समान नागरिक हिन्दू संहिता, राज्य पुनर्गठन, बडे आकार के राज्यों को छोटे आकार में संगठित करना, राज्य के नीति निर्देशक तत्व, मौलिक अधिकार, मानवाधिकार, काम्पट्रोलर व ऑडीटर जनरल, निर्वाचन आयुक्त तथा राजनीतिक ढांचे को मजबूत बनाने वाली सशक्त, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं विदेश नीति बनाई।
प्रजातंत्र को मजबूती प्रदान करने के लिए राज्य के तीनों अंगों न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं विधायिका को स्वतंत्र और पृथक बनाया तथा समान नागरिक अधिकार के अनुरूप एक व्यक्ति, एक मत और एक मूल्य के तत्व को प्रस्थापित किया।
विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों की सहभागिता संविधान द्वारा सुनिश्चित की तथा भविष्य में किसी भी प्रकार की विधायिकता जैसे ग्राम पंचायत, जिला पंचायत, पंचायत राज इत्यादि में सहभागिता का मार्ग प्रशस्त किया।
सहकारी और सामूहिक खेती के साथ-साथ उपलब्ध जमीन का राष्ट्रीयकरण कर भूमि पर राज्य का स्वामित्व स्थापित करने तथा सार्वजनिक प्राथमिक उद्यमों यथा बैकिंग, बीमा आदि उपक्रमों को राज्य नियंत्रण में रखने की पुरजोर सिफारिश की तथा कृषि की छोटी जोतों पर निर्भर बेरोजगार श्रमिकों को रोजगार के अधिक अवसर प्रदान करने के लिए उन्होंने औद्योगीकरण की सिफारिश की।

शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा एवं श्रम कल्याण
वायसराय की कौंसिल में श्रम मंत्री की हैसियत से श्रम कल्याण के लिए श्रमिकों की 12 घण्टे से घटाकर 8 घण्टे कार्य-समय, समान कार्य समान वेतन, प्रसूति अवकाश, संवैतनिक अवकाश, कर्मचारी राज्य बीमा योजना, स्वास्थ्य सुरक्षा, कर्मचारी भविष्य निधि अधिनियम 1952 बनाना, मजदूरों एवं कमजोर वर्ग के हितों के लिए तथा सीधे सत्ता में भागीदारी के लिए स्वतंत्र मजदूर पार्टी का गठन कर 1937 के मुम्बई प्रेसिडेंसी चुनाव में 17 में से उन्‍होंने 15 सीटें जीतीं।
कर्मचारी राज्य बीमा के तहत स्वास्थ्य, अवकाश, अपंग-सहायता, कार्य करते समय आकस्मिक घटना से हुये नुकसान की भरपाई करने और अन्य अनेक सुरक्षात्मक सुविधाओं को श्रम कल्याण में शामिल किया।
कर्मचारियों को दैनिक भत्ता, अनियमित कर्मचारियों को अवकाश की सुविधा, कर्मचारियों के वेतन श्रेणी की समीक्षा, भविष्य निधि, कोयला खदान तथा माईका खनन में कार्यरत कर्मियों को सुरक्षा संशोधन विधेयक सन 1944 में पारित करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सन 1946 में उन्होंने निवास, जल आपूर्ति, शिक्षा, मनोरंजन, सहकारी प्रबंधन आदि से श्रम कल्याण नीति की नींव डाली तथा भारतीय श्रम सम्मेलन की शुरूआत की जो अभी निरंतर जारी है, जिसमें प्रतिवर्ष मजदूरों के ज्वलंत मुद्दों पर प्रधानमंत्री की उपस्थिति में चर्चा होती है और उसके निराकरण के प्रयास किये जाते है।
श्रम कल्याण निधि के क्रियान्वयन हेतु सलाहकार समिति बनाकर उसे जनवरी 1944 में अंजाम दिया। भारतीय सांख्यिकी अधिनियम पारित कराया ताकि श्रम की दशा, दैनिक मजदूरी, आय के अन्य स्रोत, मुद्रस्‍फीति, ऋण, आवास, रोजगार, जमापूंजी तथा अन्य निधि व श्रम विवाद से संबंधित नियम सम्भव कर दिया।
नवंबर 8, 1943 को उन्होंने 1926 से लंबित भारतीय श्रमिक अधिनियम को सक्रिय बनाकर उसके तहत भारतीय श्रमिक संघ संशोधन विधेयक प्रस्तावित किया और श्रमिक संघ को सख्ती से लागू कर दिया। स्वास्थ्य बीमा योजना, भविष्य निधि अधिनियम, कारखाना संशोधन अधिनियम, श्रमिक विवाद अधिनियम, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम और विधिक हडताल के अधिनियमों को श्रमिकों के कल्याणार्थ निर्माण कराया।
 

Thursday, April 11, 2019

महात्मा फुले


हिन्दू समाज में फैली हुई कुरीतियां, रूढ़िवादिता के खिलाफ 19वीं सदी के प्रारंभ में बहुत से समाज सुधारक आवाज उठाने लगे थे। जिनमें राजा राम मोहन राय,महादेव गोविन्द रानाडे, ज्योतिबा फुले आदि का महत्व पूर्ण योगदान हैं। उस समय सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह,स्त्री शिक्षा आदि विभिन्न सामाजिक कुरुतियो को दूर करने में इन सभी का महत्वपूर्ण योगदान हैं। जिसके लिए हम सभी हमेशा इन समाज सुधारकों के ऋणी रहेगें । आज की पोस्ट में हमे इन्ही में से एक महान समाज सुधारक के बारे में जानेंगे।
      
                                 महात्मा फुले

नाम – ज्योतिबा फुले , ज्योतिराव फुले , महात्मा फुले

जन्म- 11 अप्रेल 1827

जन्म स्थान – खानवाडी पुणे ( महाराष्ट्र)

पिता – गोविन्द राव

माता -चिमना बाई

पत्नी– सावित्री बाई फुले

मृत्यू– 28 नवम्बर 1890 पुणे


                     प्रारंभिक जीवन

ज्योतिराव  फुले का जन्म 11 अप्रेल 1827 को महाराष्ट्र के खानवाडी में एक माली परिवार में हुआ था।इनके पिता का नाम गोविन्द राव तथा माता का नाम चिमना बाई था। जब ये बहुत छोटे थे तभी इनकी माँ का देहांत हो गया था। इनका लालन-पालन इनके पिता की मौसेरी बहन सगुना बाई ने किया था। इनके परिवार का पैत्रिक कार्य बागवानी करना और फूल मालाएँ बनाकर बेचना था। उनके इसी कार्य से इनका उपनाम फुले हो गया। 
                           शिक्षा

उस समय माली समाज बहुत पिछड़ा हुआ था। उस समय शिक्षा का महत्व भी बहुत कम था।  फिर भी इनके पिता गोविन्द राव शिक्षा के महत्व को समझते थे। इसलिए 7 वर्ष की आयु में इन्हें प्रारंभिक शिक्षा के लिए स्कूल भेजा गया। हिन्दू समाज में जातिगत भेदभाव भी बहुत ज्यादा था। इसी भेद भाव का सामना ज्योतिबा को स्कूल में भी करना पड़ा। जिसके कारण स्थिति ऐसी हो गई कि इन्हें अपना स्कूल छोड़कर घर बैठना पड़ा। तब सगुना बाई ने ज्योतिबा को घर ही पढ़ाना शुरू कर दिया। अब ज्योतिबा दिन में खेतों पर काम करते और रात्रि में पढाई करने लगे। 
इनकी इस लगन को देखकर इनके पडौसी उर्दू-फारसी के शिक्षक गफ्फार बेग और इसाई पादरी लेजिट ने 1941 में इनका प्रवेश पुनः एक अग्रेजी स्कूल में करा दिया। जहाँ सर्वाधिक अंक पाकर सभी को अचम्भित कर दिया। 

सामाजिक भेद भाव का ज्योतिबा पर प्रभाव 

ज्योतिबा फुले ने बहुत ही कम आयु में सामाजिक भेदभाव का सामना किया। इसलिए उनका मन उद्देलित रहने लगा था।  वे हिन्दू धर्म में फैली हुई विसंगतियां, ऊँच -नीच,जाति -पात,अंध-विश्वास को मानव विकास में बाधक मानते थे। उनका मानना था कि धर्म को तो मानव के आत्मिक विकास का साधन होना चाहिए। पर उस समय के तथा कथित उच्च वर्ग ने दलित वर्ग और धर्म के बीच एक कृत्रिम दीवार खडी कर दी थी। वो इस रुढ़िवादी दीवार को तोड़ना चाहते थे। 
ज्योतिबा ने इस सामाजिक भेद भाव को दूर करने के लिए और समझने के लिए रामानंद, रामानुज,कबीर,दादू,संत तुकाराम,गौतम बुद्ध, के साहित्य को पढ़ा। उन्होंने विल्सन जोन्स द्वारा हिन्दू धर्म की अंग्रेजी कृतियाँ गीता ,उपनिषद, पुराण आदि को भी पढ़ा। इन सभी पुस्तकों को पढ़कर उन्होंने अपने चिंतन को एक नया नई ऊंचाई पर पहुँचाया। वे समझ गए कि केवल शिक्षा ही समाज में फैली हुई इन विसंगतियों को दूर कर सकती हैं। इसलिए उन्होंने शिक्षा का प्रचार प्रसार कर समाज में आमूल-चूल परिवर्तन करने की ठान ली। जिसके फलस्वरूप वे महान समाज सुधारक बने। 
                     
                          नारी शिक्षा

ज्योतिबा फुले का यह मानना था कि यदि स्त्री शिक्षित होगी तो समाज शिक्षित होगा। क्योकिं बच्चे के लिए उसकी माँ ही प्राथमिक पाठ शाला होती है।  वही बच्चों में संस्कारों के बीज डालती है जो उसके जीवन भर काम आते हैं। वो ही समाज को एक नई दिशा दिखा सकती हैं। इसीलिए उन्होंने स्त्री शिक्षा पर बहुत जोर दिया। 
वंचित वर्ग और स्त्री शिक्षा के लिए उन्होंने इस वर्ग की लडकियों और लड़कों को अपने घर पर पढ़ाना शुरू कर दिया। उच्च वर्ग के लोगों को उनका यह प्रयास अच्छा नहीं लगा।  इसलिए वे बच्चों को छिपाकर लाते और उन्हें वापस छोड़ कर लाते। धीरे-धीरे उनका यह प्रयास सफल होने लगा।  बच्चों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गई। अब उन्होंने खुले आम पढ़ाना शुरू कर दिया और इसे एक स्कूल का रूप दे दिया। 
ज्योतिबा ने 1951 में भारतीय इतिहास का प्रथम बालिका स्कूल में खोला। अब इस स्कूल में पढ़ाने के लिए शिक्षक की आवश्यकता पड़ने लगी। लेकिन जो भी शिक्षक उस स्कूल में पढ़ाने के लिए आता। वो कुलीन लोगों के विरोध और सामाजिक दबाव के कारण कुछ ही दिन में स्कूल छोड़ देता। इस विकट समस्या से छुटकारा पाने के लिए ज्योतिबा ने अपनी पत्नि सावत्री बाई फुले को पढ़ाया। इसके बाद ज्योतिबा फुले ने सावित्री बाई फुले एक मिशनरीज स्कूल में पढ़ाने का प्रशिक्षण दिलाया। इस प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद सावित्री बाई फुले भारत की प्रथम प्रशिक्षित महिला शिक्षिका बनी। 
ज्योतिबा फुले के इस प्रयास से सारा कुलीन वर्ग उनके खिलाफ खड़ा हो गया। वो ज्योतिबा फुले और सावत्री बाई फुले को तरह-तरह से अपमानित करने लगे। यह विरोध इतना बढ़ गया कि उन्हें अपने पिता का घर भी छोड़ना पड़ा। लेकिन इतना सब कुछ होने के बाद भी उन्होंने अपने मनोबल को कभी कम नहीं होने दिया। शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक तीन बालिका स्कूल खोल दिए। 
अन्य सामाजिक सुधार हेतु संघर्ष 
19 वी सदीं में अछूतों की स्थति बहुत ही दयनीय थी। जब भी कोई अछूत पूना शहर की सड़को पर से निकलता तो उसे अपनी पीठ पर पत्तियों की एक झाड़ू बांधनी पड़ती थी। जिससे की जब वह चलता तो उसके पीछे की सड़क साफ हो जाती हैं। इसी के साथ अपनी गर्दन में एक बर्तन बांधना पड़ता था। जिससे कि जब वह थूके तो उसी बर्तन में थूके।इसके अलावा जब भी कोई अछूत सड़क पर निकलता था, तो उसे आवाज लगाकर लोगों को सावधान करना पड़ता था। 
अछूत गरीब लोगों के पास पीने के पानी के लिए कोई कुआ भी नहीं होता था, और उच्च जाती के लोग उन्हें अपने कुँए से पानी भी नहीं भरने देते थे। जिसके कारण वे गन्दा पानी पीने के लिए मजबूर हो जाते हो विभिन्न बीमारियों से ग्रसित हो जाते थे। ज्योतिबा फुले इस प्रकार की दयनीय स्थिति से बहुत दुखी रहते थे। इसलिए उन्होंने अपने घर में पानी का एक कुआं खुदवाया और सभी वर्गों के लिए खोल दिया। और जब वे नगर पालिका के सदस्य बने तो उन्होंने पीने के पानी की हौज सार्वजानिक स्थलों पर बनवाई। 
ज्योतिबा फुले ने सती प्रथा का विरोध किया और विधवाओं के विवाह कराने का अभियान चलाया। जिसके क्रम में उन्होंने अपने मित्र विष्णु शास्त्री पंडित का विवाह एक विधवा ब्राह्मणी से कराया। उन्होंने पथ भ्रष्ट हुई महिलाओं द्वारा बाल हत्या को रोकने के लिए 1863 में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह खोला। उन्होंने एक विधवा ब्राह्मणी काशीबाई की प्रसूति अपने घर कराइ और उसके बच्चे को गोद ले लिया जिसका नाम उन्होंने यशवंत रक्खा। 1871 में उन्होंने सावित्री बाई फुले को सयोजक बनाकर पूना में विधवा आश्रम खोला। 
जिस प्रकार यूरोप में कार्ल मार्क्स किसान-मजदूर आन्दोलन के प्रणेता थे। उसी प्रकार भारत में ज्योतिबा फुले किसान मजदूर आन्दोलन के जन्मदाता थे। उस समय समय मिल व उच्च वर्ग की दुकानों में कार्य करने वाले मजदूरों की स्थिति  बहुत ही दयनीय थी। उनके काम के घंटे बहुत अधिक थे। फुले ने इस स्थिति  के विरोध में आवाज उठाई और मजदूरों के काम के घंटो में कमी  व अवकाश,बीच में एक घंटे का आराम,सफाई व्यवस्था आदि के कार्य मजदूरों के हितो में कराने में सफलता प्राप्त की। 
                              अंतिम समय

उनके द्वारा किये गए सामाजिक कार्यो के लिए उस समय के एक अन्य महान समाज सुधारक राव बहादुर विट्ठल राव कृष्णाजी वान्देकर ने 1988 उन्हें महात्मा के उपाधि से संबोधित किया। इसी वर्ष उन्हें लकवा मार गया जिसकी वजह से उनका शरीर कमजोर होता गया।अंततः 27 नवम्बर 1890 को एक महान व्यक्तित्व इस दुनिया से हमेशा हमेशा के लिए विदा हो गया।
स्मरणीय तथ्य


  • ज्योतिबा फुले ने भारत के इतिहास का प्रथम बालिका स्कूल की स्थापना की। 
  • 1863 में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह खोला। 
  • ज्योतिबा फुले ने 24 सितम्बर 1872 को सत्य शोधक समाज की स्थापना की। 
  • सावित्री बाई फुले प्रथम प्रशिक्षित शिक्षिका बनी। 
  • ज्योतिबा फुले को महात्मा की उपाधि राव बहादुर विट्ठल राव कृष्णाजी वान्देकर ने 1988 में दी थी। 
  • ज्योतिबा फुले द्वारा लिखित कुछ प्रसिद्ध पुस्तकें -तृतीय रत्न,छत्रपति शिवाजी,ब्राहमण का चातुर्य,गुलामगिरी ,किशान का कोड़ा,अछूतों की कैफियत,गुलामगिरी,सार्वजानिक सत्यधर्म आदि है|


Sunday, April 7, 2019

फुरसत के पल

इस जिंदगी की भागम् भाग मे कब दिन, हप्ते, महीने, वर्ष गुजर जाते है कुछ पता ही नही चलता। ऐसे मे जब अपनो की बात की जाए तो अपनो को सोच के ही मन मे एक मधुर आवेग व स्नेह उद्गमित हो उठता है।
          कहने को तो हम मिले अवकाश मे घर जा रहे है पर अब तो घर भी चिड़िया की उस घोसले की तरह हो गया जो की क्षुधा सापेक्ष सृजन मे कही दूर तक आ चुकी हो,  और अपने घर नित्त दिन रहने की कसक मन मे दबाये बैठे हो।
          मिले अवसर मे अपनो के साथ अपना मन बाटें। वरिष्ठ जनो का आशीर्वाद और सिख ले। अपने नन्हे जानो का अभिवादन ले और उनको स्नेह दें। मिले कुछ पल को बेकार के झन्झवातो मे न गवा अपने परिवार, समाज और अपनो के संग तर्कवादी सोच के साथ प्रेम और स्नेह का एक नया आयाम दे और मिले अवसर का पूर्णरूपेण आनंद उठाये।




आशा.......


समय कठिन समय हमारे अंदर छुपे असीमित क्षमता, धैर्य का परिचय करवाता है, हमे सीख देता है, बुरे कार्य के प्रति सचेत भी करता है।
        जीवन के कुछ आधार स्तम्भ है जिसमे -
 शांति, विश्वास, प्रेम, आशा, ये चार प्रमुख है।
हम शांति की तलाश मे बहुत कोशिशो के बाद भी हताश हो जाते है।
      विश्वास तो लोगो मे इस तरह की दूरी बना लिया है कि लोगो मे नि:स्वार्थ विश्वास मात्र एक संयोग है।
       लोगो मे दुसरो के प्रति तो नफरत का भाव है ही, साथ ही अपनो के लिए प्रेम तथा अपनो के लिए भी इस जीवन के कठिन उधेड़-बुन मे समय नही निकाल पाता। अब तो प्रेम भी एलेक्ट्रानिक संदेश की तरह हो गया है, कब डिलिट,  कब फॉर्मेट हो जाए, कब आपकी जगह कोई और लेले कुछ कहा नही जा सकता।
     परंतु आशा तो मानव जीवन मे ऐसी किरण है जो सभी कारको से निराश व्यक्ति की जीवन मे फिर से नये जोश के साथ अपने लक्ष्य के तरफ बढ़ने का साहस देती है और उत्साहित करती है।
     जीवन मे सकरात्मक रहें, तर्कवादी बने, अपनो का भरोसा ना तोड़े, व उनपे भरोसा करे और उनका उचित सम्मान करे, प्रेम का भाव रखें, खुश रहे,  अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नियमित रूप से लगन के साथ मेहनत करे, परिणाम अवश्य ही बेहतर और आपके अनुरूप होगा। 


यार बताऊं कैसे मैं

  चाह बहुत है कह जाऊं,  पर यार बताऊं कैसे मैं  सोचता हूं चुप रह जाऊं,  पर यार छुपाऊं कैसे मैं ।  प्रेम पंखुड़ी बाग बन गया,  धरा पर लाऊं कैसे...